
कोरोना के खौफ से जहाँ लोग सोशल डिस्टेंसिंग और बेहद सावधानी भरा जीवन जीने लगे हैं वहीँ 150 साल से ज्यादा पुरानी देवभूमि की परम्परा भी टूट रही है…. जी हाँ उत्तराखंड में होने वाले अनोखे और रोमांचकारी मछली पकड़ने वाले मौण मेले पर लॉक लग गया है और वजह बनी है कोविड 19 की दहशत ….पर्यावरण को बचाने का संदेश देने वाला ये ऐतिहासिक मौण मेला इस बार आयोजित नहीं किया जाएगा. परंपरा के अनुसार यहां अलगाड़ नदीं में हजारों ग्रामीण मछली पकड़ने के लिये उतरते है और पहाड़ के पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर थिरकते हैं…..
पहाड़ों की रानी मसूरी के करीब जौनपुर में उत्तराखंड की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्परा का गवाह है मौण मेला जो इस बार इस बार कोरोना महामारी के चलते निरस्त कर दिया गया है …. आपको बता दें की पहाड़ के कोने कोने से लोग इस मेले में शामिल होने आते थे और तो और विदेशी सैलानी भी इस रोमांच का अनुभव करने नदियों के किनारे डेरा डालते थे …. अब चूँकि मेला नहीं होगा लिहाज़ा हजारों ग्रामीणों में मायूस दिखाई दे रही हैं….
आपको यहाँ बता दें कि यह फैसला मौण मेला समिति द्वारा आयोजित एक अहम बैठक में लिया गया है….. तर्क दिया गया कि इस ऐतिहासिक मौण मेले में हजारों की सख्या में ग्रामीण नदी में मछलियों को पकड़ने के लिये उतरते हैं…. अब ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराना बेहद मुश्किल हो सकता है लिहाज़ा इस बार मेले को रद्द करना ही सही होगा …. मेले के इतिहास की बात करें तो सन् 1866 से लगातार इस मेले का आयोजन किया जाता रहा है. …. इस ऐतिहासिक मेले की शुरुआत 1866 में उस वक़्त के टिहरी नरेश ने किया था….. तब से जौनपुर में हर साल इस दिलचस्प मेले का आयोजन किया जा रहा है…. मौण मेला राजा के शासन काल से मनाया जाता है और क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश स्वयं अपने लाव लश्कर एवं रानियों के साथ मौजूद रहा करते थे……
मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती हैं, जिसे ग्रामीण प्रसाद मानकर अपने घर ले जाते हैं और अपने मेहमानों को परोसते हैं. इस दौरान दिलचस्प होता है मेले में किया जाने वाला पारंपरिक लोक नृत्य जो ढोल दमाउ की थाप पर होता है….. अब आपको बता दें की इस दौरान क्या क्या नियम अपनाये जाते हैं … मेले से पहले अगलाड़ नदी में टिमरू के छाल से निर्मित पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ देर के लिए बेहोश हो जाती हैं. इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है. हजारों की संख्या में यहां ग्रामीण मछली पकड़ने के अपने पारंपरिक औजारों के साथ उतरते हैं. मानसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने का सामूहिक मौण मेला मनाया जाता है…. लोगों का कहना है कि इस अनोखी परम्परा के पीछे पर्यावरण संरक्षण का भी मुख्य उद्देश्य होता है… लेकिन इस बार कोरोना की वजह से नदियों में न रोमांच होगा न मछलियों को पकड़ने का जोश होगा क्यूंकि कोरोना ने इस डेढ़ सौ साल पुरानी परम्परा पर भी लॉक डाउन कर दिया है