आज हम जिस उत्तराखंड राज्य में रह रहे हैं। क्या हम उसमें उस तरह से रह पा रहे हैं, जिस तरह उत्तराखंड आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने सपना देखा था..? क्या हम वो चीजें हासिल कर पाए, जिनके लिए हमारे वीर माताओं भाइयों ने शहादत दे दी थी ? जो अलग राज्य के अरमान संजोए थे…?
क्या आज हम पहाड़ और पहाड़ियों को समृद्ध और खुशहाल देख पा रहे हैं…? क्या हम खुद को अपने घरों में सुरक्षित महसूस कर पा रहे हैं…? क्या पलायन और स्वास्थ्य शिक्षा मिल पा रही है बेशक जवाब निराशाजनक है …. अनगिनत कुर्बानियों का क्या सिला मिला ?
हम हर साल आंदोलनकारियों को उनकी कुर्बानियों के लिए याद करते हैं। पर क्या से सही मायने में श्रद्धांजलि होगी कि हम उनकी स्मृति में बने स्मारकों पर पूरे साल लगी धूल को साल में एक बार झाड़-फूंक कर हटा देते हैं। उनके लिए सही श्रद्धांजलि उनके सपनों का उत्तराखंड ही हो सकता है।
समृद्ध, संपन्न हौर खुशहाल उत्तराखंड। जिसे हम राज्य बनने के बाद अब तक सही मायने में हासिल नहीं कर पाए हैं। आज राज्य के लिए कुर्बानी देने वाले खटीमा गोलकांड के शहीदों को याद करने का दिन है। आज है राज्य आंदोलन का वो काला मनहूस दिन क्यूंकि इसके अलगे दिन मसूरी गोली कांड भी हुआ था। यानि 1 और 2 सितंबर 1994 को लगातार दो गोलीकांडों ने पूरे पहाड़ को झकजोर कर रख दिया था।
1 सितंबर 1994 का दिन आज भी हर उत्तराखंडी को याद है। लोग उस काले दिन को भुलाने के बाद भी नहीं भूल पाते। पुलिस तांडव में हिन्दू भी शहीद हुए मुस्लिम भी शहीद हुए …. सात आंदोलनकारी भवान सिंह सिरौला, गोपी चंद, धर्मानंद भट्ट, प्रताप सिंह मनौला, परमजीत, सलीम, रामपाल की कहानियां पहाड़ में अम्र हो गयीं ….. इस घटना में सैकड़ों आंदोलनकारी घायल हुए।थे खटीमा गोलीकांड के बाद राज्य आंदोलन पूरे प्रदेश में आग की तरह भड़क उठा।
खटीमा गोलीकांड इतना विभत्स था कि देखने वालों की रुह कांप गई। उसकी विभत्सा को सुनकर आज भी लोग सिहर उठते हैं। आज अफ़सोस कि उस घटना को खानापूर्ती की खातिर याद कर लेने भर का सियासी ड्रामा किया जा रहा है और शहीदों को भुलाकर सियासत की मलाई काटने में नेता मशगूल हैं मदमस्त हैं ये पहाड़ के शहीदों का अपमान है जिसका हर नौजवान हर महिला और हर बुजुर्ग आंदोलनकारी सख्त विरोध कर रहा है