अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस आज, गढ़वाली-कुमाऊंनी को आठवीं अनुसूची में शामिल होने का आज भी इंतजार
देहरादून- आज दुनियाभर में भाषाओं को बचाने की चिंता में मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है। ऐसी ही एक चिंता उत्तराखण्ड की मातृभाषा माने जाने वाली कुमाऊंनी और गढ़वाली बोली को बचाने की भी है। लम्बे प्रयास के बाद भी गढ़वाली और कुमाऊंनी बोली संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज नहीं हो पाई है। राज्य में भाजपा की सरकार रही हो या कांग्रेस की दोनों की ओर से केन्द्र को पत्र भेजे गये। सतपाल महाराज से लेकर मौजूदा सांसद अजय भट्ट तक कई सांसद सदन में इस प्रश्न को उठा चुके हैं। लेकिन पर्याप्त साहित्यिक पृष्ठभूमि के बावजूद इन दोनों बोलियों को अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सका है। जबकि मैथिली, बोडो और कोकणी से कहीं अधिक लोग गढ़वाली, कुमाऊंनी बोलते हैं। 1560-1790 ईसवी तक सभी शासकीय कार्य गढ़वाली एवं कुमाऊंनी बोली में होते थे। ताम्रपत्रों, शिलालेखों एवं सरकारी दस्तावेजों में इसके अभिलेखीय प्रमाण आज भी मौजूद हैं। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में गढ़वाली, कुमाऊंनी बोली एवं साहित्य पर कई पीएचडी शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। सन 1913 में गढ़वाली भाषा का प्रथम समाचार पत्र गढ़वाली समाचार प्रकाशित हुआ। इसके अलावा भी इसकी कई साहित्यिक पृष्ठभूमि हैं, इसके बावजूद गढ़वाली, कुमाऊंनी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सका है। राज्य सरकार की ओर से गढ़वाली-कुमाऊंनी बोली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने एवं शासकीय मान्यता दिए जाने के लिए केंद्र सरकार को कई पत्र लिखे जा चुके हैं। 19 दिसंबर 2014 और इससे पहले 29 नवंबर 2014 को दो बार तत्कालीन सचिव सीएस नपलच्याल गृह सचिव को पत्र लिख चुके हैं। इससे पहले तत्कालीन अपर सचिव विनोद शर्मा की ओर से केंद्र को पत्र लिखा गया। लेकिन गढ़ राजाओं और चंद शासनकाल में राजभाषा रही गढ़वाली, कुमाऊंनी बोली को आज भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है।