Thursday, April 18, 2024
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चिपको आंदोलन की वर्षगांठ आज, जानिए चिपको आंदोलन का इतिहास और महिलाओं का बलिदान

26 मार्च सन 1970 ,पर्यावरण की सुरक्षा के लिए लगभग 52 वर्ष पहले एक आंदोलन ने जन्म लिया था। जिसे चिपको आंदोलन नाम दिया गया था। चिपको आंदोलन एक ‘ईको-फेमिनिस्ट’ आंदोलन था। पेड़ों की अंधाधुंध अवैध कटाई और लगातार नष्ट हो रही वन संपदा के विरोध में उत्तराखंड के चमोली जिले के किसानों ने यह आंदोलन चलाया था। चिपको आंदोलन की नीव रैणी के जंगलों में 26 मार्च 1973 को रखी गयी थी। इस आंदोलन की शुरुआत चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी की ओर से की गई थी और भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे रहकर इसका नेतृत्व किया था। उस वक्त चिपको आंदोलन न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि पूरे भारत में फैलने लगा था।

क्या है चिपको का इतिहास 

सन् 1972-73 के समय जब चमोली के रैणी गांव में गांववासियों को यह पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को 2451 अंगु के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है। तभी से भौंस-मंडल के जंगलों में पेड़ों को कटने से बचाने के लिए चिपको शब्द आंदोलनकारियों के बीच आया और उस वक्त उन्होंने अंगु के पेड़ देने से इंकार कर दिया था। लेकिन 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। ये पेड़ हमारे चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते है। उसके बाद 5 और 24 मार्च को गांव वालों ने रैणी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। जब आंदोलन जोर पकड़ने लगा तब सरकार ने घोशणा कर दी कि गांव के लोग अपना मुआवजा ले जाएं। जिसके बाद गांव के पुरुष मुआवजा लेने चमोली पहुंच गए और आंदोलनकरियों को भी बातचीत के लिए गोपेश्वर बुला लिया गया। इसी मौके का फायदा उठा कर ठेकेदार और वन अधिकारी जंगलों में घुस गए। गांव में सिर्फ महिलाएं थी। जान की परवाह किये बिना 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृत्व में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1973  को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई। महिलाओं ने कहा कि पेड़ों के कटने से पहले हम स्वयं कट जाएंगीं। जंगल में महिलाओं के उग्र विरोध के पश्चात ठेकेदारों ने हथियार डाल दिए।

क्या थी चिपको आंदोलन की मांगें   

गांव के लोग सिर्फ इतना चाहते थे कि बाहर की कंपनी अपनी जरूरत पूरी करें लेकिन पहले गांव का विकास होने दें। लकड़ी की बड़ी मात्रा में कटाई ना की जाए, साथ ही वनवासियों को वन संपदा से किसी न किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिए। ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके। गांव के लोग जानते थे कि अंगु की लकड़ी बेहद जरुरी है। जिससे खेती में प्रयोग में लाये जाने वाले औजार बनाये जाते थे। साथ ही लकड़ी इतनी हल्की और मजबूद रहती थी कि बैलों को थकान नहीं लगती थी।

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